बूढ़ी दीपावली

अब तुम चली जाओगी
पूरे वर्ष तेरा इंतज़ार किया
अब मेरी फसल कट चुकी है
मेरे भकार भर चुके है
मेरे गोठ से दूध की नदियां बह रही है
मेरे बच्चे इसी अनाज दूध दही घी से पोषित हुन्गे
अब तुम जा रही हो तो फिर आनेतक
मेरे दीए में तेल रखना
इसी दीए से फिर स्वागत करूंगा
ओ दीपावली तुम जल्दी आना.......

बूढ़ी दीपावली :-
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आज हरबोधनी एकादशी को कुमाऊँनी लोग बूढ़ी दीपावली के रूप में मनाते हैं। घर-घर में पुनः दीपावली मनाई जाती है। इस दिन कुमाऊँनी महिलाऐं गेरू मिट्टी से लीपे सूप में और घर के बाहर आंगन में गीले बिस्वार द्वारा लक्ष्मी नारायण एवं भुइयां (घुइयां) की आकृतियां चित्रित करती हैं। सूप के अंदर की ओर लक्ष्मी नारायण व तुलसी का पौधा तथा पीछे की ओर सूप में भुइयां ( यानि दुष्टता, इसकी आकृति वीभत्स रूप में होती है) को बनते हैं। गृहणियां दूसरे दिन ब्रह्म मुहूरत में इस सूप पर खील, बतासे, चुडे़ और अखरोट रखकर गन्ने से उसे पीटते हुए घर के कोने कोने से उसे इस प्रकार बाहर ले जाती हैं जैसे भुइयां को फटकारते हुए घर से निकाल रही हों। इस सब का तात्पर्य है कि लक्ष्मी नारायण का स्वागत करते हुए घर से दुष्टता, दरिद्रता तथा अमानवीयता आदि का अन्त हो और घर में सदैव सुख, शान्ति एवं सात्विकता का वास हो। हमारे घर मे भी अभी भी होता है, आ हो लक्ष्मी बैठ नरैणा, निकल भुईंया उच्चारण करते हुए रात्रि के अन्तिम पहर में भुईंया महिलाओं द्वारा निकाला जाता है।
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