वंचितों की ऑनलाइन कक्षाएं ।

हाल ही में स्कूल खोलने को लेकर राज्य सरकार ने सुझाव मांगे थे। अगर इसका सीधा जवाब माँगा जाता तो वह तो यह था कि यह सत्र अकादमिक दृष्टि से शून्य सत्र घोषित कर दिया जाना चाहिए और महामारी पर पूर्ण नियंत्रण तक स्कूलों को नहीं खोला जाना चाहिए। 
  पर, जो जमीनी हालात हैं,उसमें इतना सीधा जवाब सम्भव नहीं। भारत भर में शिक्षा का एक वर्गीय ढाँचा भी है। इस वर्गीय ढाँचे के शीर्ष पर महंगे शहरी कॉन्वेंट हैं,और सबसे निचले पायदान पर ग्रामीण सरकारी विद्यालय। आप शहरों में देखिए तो इन महंगे स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के साधन संपन्न होने के कारण उनको सही रणनीति के साथ ऑनलाइन शिक्षण का लाभ लगातार मिल रहा है। इनके पास संसाधन हैं, स्कूल बंद होने के बाद से प्राइवेट ट्यूटर हैं। इसके बाद मध्यवर्गीय स्कूल हैं। यहाँ पढ़ रहे बच्चों के माँ बाप भी मर खप के रेस में बने रहने को संसाधन जुटा रहे हैं। घर में अगर एक ही लेपटॉप है तो इन दिनों वो बच्चों को समर्पित है। 
    अंत में सरकारी विद्यालयों के विद्यार्थी हैं। जिनमें ऑनलाइन योजनाएं तो हैं,पर उनका जमीन में पहुँच पाना सम्भव नहीं। कल्पना कीजिए,जिन बच्चों के पास अलग से स्कूल की सरकारी किताबें या यूनिफार्म खरीदने के साधन नहीं होते उनके लिए ऑनलाइन शिक्षण के संसाधन जुटाना कितना सम्भव है? जूम, यूट्यूब, व्हाट्सएप उनके लिए थोड़े समय तक रोमांच लेने की चीजें जरूर हो सकती हैं, पर इनको लगातार प्रयोग कर पाना इन बच्चों की पहुँच से बाहर है। इनमें से अधिकाँश बच्चे किसी पड़ोसी से मोबाइल पर माँगकर ये सब ऑनलाइन क्रिया कलाप करते हैं। अधिकांश घरों में डीडी स्वयंप्रभा देखने के लिए टीवी भी उपलब्ध नहीं। खैर उपलब्ध भी होता तो इनकी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि में वह कक्षा शिक्षण का विकल्प नहीं बन पाता। अगर ये सभी चीजें कक्षा शिक्षण का विकल्प होती,या इनसे स्कूली शिक्षा की भरपाई हो पाती तो सरकार ने कभी का शिक्षकों को रिटायर कर देना था। 
    खैर इतनी लम्बी भाषण बाजी से मतलब यह था कि लॉकडाउन से अभी तक अलग अलग तबके के लोग बच्चों की शैक्षणिक दौड़ की अलग अलग तैयारी कर रहे हैं। क्योंकि सबको पता है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा पैमाना यानी 'परीक्षाएं' तो अपने ही समय पर होंगी। उनमें कोई कोताही नहीं बरती जाएगी। इंजीनियरिंग मेडिकल की प्रवेश परीक्षाएं हुई न, यूनिवर्सिटी की हुई न, प्रतियोगी परीक्षाएं जारी हैं न? जब परीक्षा होनी है तो सभी जुटे हैं अपने स्तर से उसकी तैयारी में। 
   अब इसमें पिस रहा है वो गरीब बच्चा जिसके माँ बाप सुबह मजदूरी को जा रहे हैं और शाम को आकर कहते हैं - ' बस स्कूलों में ही हो रहा है कोरोना, बाकी तो सब खुला ही हुआ है! चल जब तक नहीं खुल रहा स्कूल मेरे साथ काम ही सीख ले थोड़ा, अब खाली बैठे करेगा क्या?' तो बच्चे घास कटाई में लगे हैं, दिन भर ग्वाला गए हैं, कभी आस पास से मोबाईल देखकर,या मासाप मिल जाएं वर्कशीट लेकर, तो स्कूल की खोज खबर ले लेते हैं। मासाप उनके घर बाल गणना के लिए आ रहे हैं, वर्कशीट देने आ रहे हैं, वे राशन लेने स्कूल जा ही रहे हैं। फिर सोच रहे हैं, क्या कोरोना इन कामों के लिए मिलने में नहीं होता होगा? उसकी उम्र के साधन संपन्न बच्चे जुटे हुए हैं रेस की तैयारी में। ट्यूशन जारी हैं, बायज़ूज पर शारुख खान ज्ञान बाँट रहा है,स्कूल में जूम एप चल रहा है। 
     अब सरकार सुझाव माँग रही है उन अध्यापकों से जिनको कोरोना शुरू होने से अब तक अपने कार्यक्षेत्रों में बने रहना था। यानी वे तो हैं ही अपने स्कूलों में। टीसी काट रहे हैं,राशन बाँट रहे हैं,न्यूनतम संसाधनों में ऑनलाइन पढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं,गाँवों में जाकर वर्कशीट बाँट रहे हैं, कुछ एक तो अलग से बच्चों को छोटे समूहों में पढ़ा भी रहे हैं, और अंत मे सुन रहे हैं-"सही ठहरा आपका भी मासाप! मुफ्त में तनखा मिल रही लॉक डाउन में आजकल तो।"
      तो साहब बहादुर इतनी बकवास का उद्देश्य यही ठहरा कि जब तक परीक्षाएँ होंगी, स्कूल बंद करने का नुकसान सिर्फ गरीब संसाधनहीन बच्चे उठाएंगे। इसलिए या तो पूरे अकादमिक सत्र को ही शून्य घोषित कर दीजिए,या सबको कोरोना काल में प्रमोट कर दीजिए ,अन्यथा स्कूल तो खोलने ही पड़ेंगे। वरना गरीब का बच्चा पढ़ेगा कैसे? जिसके पास पेट भर रोटी का जुगाड़ नहीं, वो कहाँ से ऑनलाइन पढ़ ले?

साभार : मित्र प्रकाश चंद्र जोशी जी
ग्राम उडेरी सोमेश्वर

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