26 मार्च ‘चिपको आंदोलन’ की वर्षगांठ

 एक कहानी सुने पहले ...

यह घटना 1974 ई० की है। गोपेश्वर में रैणी नामक वन में कुछ लोग आए। जब वे वृक्ष काटने के लिए तैयार होते हैं तब एक महिला-आगे आकर उन लोगो को ललकारती है और कहती है -  ऐसा मत करो यह कहकर एक वृक्ष को पकड़ लेती है। परन्तु वे मजदूर वृक्ष काटने के लिए आगे आ जाते हैं और वृक्षों पर आरी कुल्हाड़ी इत्यादि चलाने लगते है और वृक्षों को काटना प्रारंभ करने लगते है । तब वह महिला अपने महिला मंगल दल को बुलाती है और कहती है-सभी जल्दी आओ और एक-एक वृक्ष को आलिंगन करो। सभी महिलाएँ वैसा ही करती हैं।तभी वन विभाग के एक कर्मचारी उसके ऊपर गोली चलाने के लिए आगे दौड़ता है। उसको देखकर वह गरजती है और ललकार कर कहती है-गोली चलाकर हमें काट दो मार दो चाहे हम तुम्हे अपने जंगल  नहीं काटने देंगे । यदि वन सुरक्षित होगा तो ही हम सब भी सुरक्षित होंगे। वन हमारा मायका है। यह सुनकर वे सब रुक जाते हैं और उस गाँव से निकल जाते हैं। क्या आप  जानते हो। यह साहसी महिला कौन थी। यह गौरा देवी थी। इसका जन्म चमोली जिले के लाता गाँव में हुआ। इन्होने  पर्यावरण संरक्षण के लिए जगह  जगह जन-जागरण किया और 'चिपको वूमन' नाम से प्रसिद्ध हुई।गौरा देवी ने सिद्ध किया की सामाजिक चेतना के लिए बहुत ज्यादा पढ़ा लिखा होना ही आवश्यक नहीं है अपने आस-पास हो रही अच्छी बुरी घटनाओं के प्रति प्रतिक्रिया देना भी सामाजिक चेतना का हिस्सा है।यह उन्ही की चेतना का असर था की एक पुरूषात्मक समाज में रहते हुए भी उन्होंने इस महान पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन का नेतृत्व किया इस आन्दोलन ने  महिला आंदोलन के रूप में भारत में और कुछ हद तक दुनिया भर में पर्यावरण-नारीवाद को प्रेरित किया।चिपको एक हिंदी शब्द है जिसका अर्थ 'चिपके रहने' या 'गले लगाने' से है। यह उत्तर भारत की पहाड़ियों में गरीब, गांव की महिलाओं के वनों को बचाने की छवियों को उजागर करता है। जो पेड़ों को ठेकेदारों की कुल्हाड़ियों से काटने से रोकने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ पेड़ों को गले लगाती हैं, जिससे उनकी जान को भी खतरा होता है। लेकिन चिपको की बहुआयामी पहचान के परिणामस्वरूप अलग-अलग लोगों के लिए इसका अर्थ अलग-अलग हो गया है।कुछ के लिए, यह गरीबों का एक असाधारण संरक्षण आंदोलन है, वहीं कुछ के लिए, यह अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण पाने के लिए एक स्थानीय लोगों का आंदोलन है, जिसे पहले एक औपनिवेशिक शक्ति द्वारा और फिर भारत की स्वतंत्र सरकार द्वारा छीन लिया गया। अंत में यह महिलाओं का एक आंदोलन बन कर उभरा, जो अपने पर्यावरण को बचाने की कोशिश कर रहे थे। पेड़ काटने वालों को यह संदेश देना कि "पेड़ों को काटने से पहले हमारे शरीर को काटना होगा"। एक असाधारण प्रतिक्रिया थी जो सामाजिक चेतना के उस स्तर को दर्शाती है जहाँ प्रकृति और मनुष्य के बंधन को दैवीय समझा जाता है और प्रकृतिक संसाधनों को मात्र संसाधन नहीं उन्हें ईश्वरीय गुणों से परिपूर्ण समझ  तदनुसार प्रयोग किया जाता है ताकि प्रकृति और मनुष्य के बीच में संतुलन बना रहे ।51 साल पहले आज ही के दिन इस आन्दोलन का ताना बाना बुना गया था । पर्यावरण को बचाने की मुहिम चल पड़ी थी वन संरक्षण के लिये पुरुष -महिलाओ ने  चिपको आंदोलन की शुरुआत गौर देवी ,चंडीप्रसाद भट्ट जी ,और सुंदरलाल बहुगुणा जी के  नेतृत्व मे चमोली जिले के गोपेश्वर से सन 1972 को आज के दिन ही की थी । इस आन्दोलन के जनसैलाब  से प्रभावित हो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सन् 1980 में वन अधिनियम बना कर 15 सालो के लिए हिमालयी परिक्षेत्र में वन कटान पर रोक लगवाई, चिपको आंदोलन पहाड़ ही नहीं पूरे देश में फैल गया । आज के परिपेक्ष में भी पर्यावरण असंतुलन को लेकर एक जन आंदोलन की आवश्यकता है जोशीमठ धस  रहा है यह एक ज्वलंत उदाहरण है जो बता रहा है कि मनुष्य और प्रकृति के बीच का संतुलन बिगड़ गया है इस संतुलन को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है इसके लिए चिपको आंदोलन की तर्ज पर एक और आंदोलन की आवश्यकता है लेकिन ऐसे आंदोलनों की शुरुआत के लिए उसी सामाजिक चेतना की आवश्यकता है जो आज से 50 साल पहले एक साधारण सी महिला गौर देवी में थी ।





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