भिटौली

हिन्दू धर्म के *चैत मास* में उत्तराखंड में विवाहित बहन की प्रति भाई और मायके वालों की भेंट के लिए प्रचलित एक पौराणिक परंपरा भिटौली...।

भिटौली का मतलब है *मिलना या भेंट* करना| पुराने ज़माने में उत्तराँचल के दूर दराज के गांवों में जाने का कोई साधन नहीं था| लोग दूर दूर तक पैदल ही जाया करते थे| एक दिन में १५-२० मील का सफ़र तय कर लेते थे|   उतार-चढ़ाव से भरी पगडंडियों के रास्ते भी जंगलों व  नदी नालों के बीच में से हो कर जाते थे| जंगलों में अनेक प्रकार के जानवर भी हुआ करते थे| उस ज़माने में बच्चों की शादी छोटी उम्र में ही कर देते थे| नई ब्याही लड़की अकेले अपने मायके या ससुराल नहीं जा सकती थी| ऐसे में कोई न कोई पहुँचाने वाला चाहिए था| इस तरह कभी तो ससुराल वाले लड़की को मायके भेजते नहीं थे और कभी कोई पहुंचाने वाला नहीं मिलता था| हमारे *पहाड़ में चैत के महीने को काला महिना मानते हैं* और नई ब्याही लड़की पहले चैत के महीने में ससुराल में नहीं रहती है| उसको मायके में आना होता है| इस तरह ससुराल जाते समय भाई अपनी बहिन को या पिता अपनी बेटी को कुछ न कुछ उपहार दे कर ससुराल को बिदा करते थे| पहले चैत के बाद लड़की को जब कोई पहुँचाने वाला मिलता तो ही वह मायके आ सकती थी| कई बार तो लड़की सालों तक भी अपने मायके नहीं जा पाती थी| उसको अपने मायके की नराई तो बहुत लगती थी पर ससुराल में रहने को बाध्य थी| पुराने बुजुर्गों ने इस बिडम्बना को दूर करने के लिए एक प्रथा चलाई| जिस का नाम *भिटौली* रखा गया| इस प्रथा में भाई हर चैत के महीने में बहिन के ससुराल जाकर उसको कोई उपहार भेंट कर के आता है| जिस में गहने कपडे और एक गुड की भेली होती है| गुड की भेली को तोड़कर गांव में बाँट दिया जाता है, जिस से पता चल जाता है की फलाने की बहु की भिटौली आई है| एक बार एक भाई भिटौली लेकर अपनी बहिन के पास गया| बहिन उस समय सोई हुई थी तो भाई ने उसे जगाने के बजाय उसके जागने का इंतजार करना ठीक समझा और वह वहीँ बैठा उसके जागने का इंतजार करने लगा, भाई का वापस जाने का समय हो गया पर बहिन नहीं जागी| भाई उसकी *भिटौली* उसके सिरहाने रख कर एक *चरेऊ* (गले में डालने वाली माला) उसके गले में लटका गया और खुद अपने गांव को वापस आ गया| बहिन की जब नींद खुली तो देखा कि उसके गले में चरेऊ लटक रहा है, *भिटौली* सिरहाने रखी है पर भाई का कोई पता नहीं है, वह भाई को आवाज देती बाहर आई | भाई को कहीं भी न देख कर उसके मन में एक टीस उठी और बोली *"भै भूखो मैं सीती"* मतलब भाई भूखा चला गया और में सोई रह गई| बहिन इस पीड़ा को सहन नहीं कर सकी और दुनिया से चली गई| अगले जन्म में वह घुघुति (फाख्ता) बन कर आई जिस के गले में एक काले रंग का निशान होता है और बोलने लगी "भै भूखो मैं सीती, भै भूखो मै सीती " जो आज भी पेड़ों पर बैठी बोलती सुनाई देती है और इस परम्परा को निभाते हुए आज भी एक भाई अपनी बहिन को चैत के महीने में भिटौली देने जरुर जाता है| परन्तु आजकल अधिकतर भाई अपनी नौकरी के सिलसिले में दूर रहते हैं और अब व्यस्तता अधिक हो गयी है सो बहिनों को मनीओडर या कोरिअर भेजकर भाई अपने फ़र्ज़ की इतिश्री कर देते हैं|
हमारी उन भाइयों से अर्ज है कि वे साल में एक बार चैत के महीने में बहिन के घर खुद जाकर उसे भिटौली दें, जिससे इस पौराणिक परम्परा को जीवित रखा जा सके|
धन्यवाद|

🙏🏻

द्वारा
सन्तोष ध्यानी जी
(2019 में मेरे एक सोशल मीडिया फ्रेंड *सुदर्शन जी* NRI द्वारा भेजी गई जानकारी के अनुसार)

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