Skip to main content

काफल पाको मैल नी चाखो ........ अर्थात काफल पक गए लेकिन मैंने नहीं चखे ।


काफल पाको मैल नी चाखो ........ अर्थात काफल पक गए लेकिन मैंने नहीं चखे ।

इन पंक्तियों को समझने के लिए आपको  दिए गए वीडियो को एक बार सुनना होगा , इस वीडियो में एक चिड़िया बार-बार इन्हीं पंक्तियों को दोहरा रही है उत्तराखंड की लोक मान्यताओं में यह काफल  और यह चिड़िया बहुत ज्यादा प्रसिद्ध है आज इस लेख में मैं आपको इस किवदंती  के साथ-साथ काफल के बारे में विस्तार से बताऊंगा ।


भारत के उत्तरी भाग में स्थित देवभूमि उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जो अपनी सम्मोहक सुंदरता, बर्फ से ढके पहाड़ों, हरे भरे जंगलों और समृद्ध वनस्पतियों और जीवों के लिए जाना जाता है। यहाँ जानवरों और पौधों की कई दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियां पाई जाति हैं । 


उत्तराखंड को पारिस्थितिक तंत्रों की एक विविध श्रेणी से नवाजा गया है, जिसमें तलहटी के उपोष्णकटिबंधीय जंगलों से लेकर उच्च हिमालय के अल्पाइन घास के मैदान शामिल हैं।


यह राज्य अपनी अनूठी संस्कृति और परंपराओं के लिए जाना जाता है, उत्तराखंड राज्य का उल्लेख विभिन्न हिंदू शास्त्रों और महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों में किया गया है।यह पवित्र पावन भूमि देवभूमि कहलाती है , पवित्र नदी गंगा उत्तराखंड के ग्लेशियरों से निकलती है, जो इसे हिंदुओं के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल बनाती है।


यु तो उत्तराखंड में  अनेको प्रकार के फल फूल औषधीय पौधे  और विभिन्न प्रकार की बहमूल्य जडी बूटियां पाई जाती है, ये सभी पादप अपने में कुछ न कुछ विशेषताओं के कारण खास है , इन्ही पौधों में एक पौधा या वृक्ष  अतिविशेष है जिसे लेकर देवभूमि उत्तराखंड में कई मान्यताएं व किवदंतियां प्रचलित है, इस  सबसे अनोखे पौधे / वृक्ष का स्थानीय नाम काफल है पहाड़ी बोली में इसे काफों नाम से संबोधित किया जाता है। 

काफल वृक्ष का वैज्ञानिक नाम (वानस्पतिक नाम)  Myrica esculenta है, जि यह एक पर्णपाती वृक्ष  है जो हिमालय क्षेत्र में पाया जाता है, विशेष रूप से हिमालय की तलहटी में। काफल उत्तराखंड में एक लोकप्रिय गर्मियों का फल है, जो अपने अनोखे स्वाद और ठंडक देने वाले गुणों के लिए जाना जाता है। फल शुरुवात में हरा ,छोटा व स्वाद में खट्टा होता है पक जाने पर यह लाल ,बैंगनी  रंग  के और स्वाद में मीठा होता है , जिसके अंदर सख्त बीज होते हैं, और यह विटामिन सी और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होता है।


काफल के पेड़ का उत्तराखंड में सांस्कृतिक महत्व है, और इसके आसपास कई किंवदंतियां और मिथक हैं। एक कथा के अनुसार भगवान शिव और माँ  पार्वती हिमालय में भटक रहे थे और माँ  पार्वती को प्यास लगी। भगवान शिव ने अपने त्रिशूल का उपयोग जमीन पर मारने के लिए किया और एक काफल का पेड़ निकला, जिससे माता पार्वती ने अपनी प्यास बुझाई। 

अपने सांस्कृतिक महत्व के अलावा, काफल के पेड़ का उपयोग उत्तराखंड में औषधीय प्रयोजनों के लिए भी किया जाता है। पेड़ की छाल का उपयोग त्वचा रोगों के इलाज के लिए किया जाता है और इसमें रोगाणुरोधी गुण होते हैं। फल का उपयोग बुखार, दस्त और पेचिश के इलाज के लिए भी किया जाता है। पेड़ की पत्तियों का उपयोग चाय बनाने के लिए किया जाता है, जिसका ताज़ा स्वाद होता है और माना जाता है कि इसमें औषधीय गुण होते हैं।
काफल गर्मियों के महीनों में पूर्ण रूप से पक  जाता है, और यह उत्तराखंड में कई लोगों के लिए आजीविका का स्रोत है। यह फल स्थानीय बाजारों में बेचा जाता है और कुछ लोग इससे जैम और अचार ( कच्चे फल का ) भी बनाते हैं। 

काफल का पेड़ उत्तराखंड की पारिस्थितिकी के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह वन पारिस्थितिकी तंत्र का एक हिस्सा है और कई जानवरों और पक्षियों को भोजन और आश्रय प्रदान करता है। काफल का पेड़ मिट्टी के संरक्षण में भी मदद करता है और उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव को रोकता है।


 उत्तराखंड की संस्कृति और परंपरा में काफल फल महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके अनूठे स्वाद, पोषण मूल्य और औषधीय गुणों ने इसे स्थानीय लोगों और पर्यटकों के बीच समान रूप से लोकप्रिय फल बना दिया है। काफल फल से जुड़ी किंवदंतियां और पौराणिक कथाएं इसके आकर्षण में इजाफा करती हैं और इसे पवित्रता, भक्ति और दिव्य आशीर्वाद का प्रतीक बनाती हैं।


मां और बेटी के पक्षियों में बदल जाने की कहानी उत्तराखंड में काफल फल से जुड़ी एक प्रचलित कथा है।

यह उत्तराखंड की एक मां और बेटी की दर्दनाक कहानी है। माँ और बेटी एक गाँव में एक रहते थे, वे बहुत निर्धन थे और बहुत मुश्किलों से अपनी गुजर बसर कर रहे थे , माँ  खेतों में काम करती थी और जंगलो से फल इक्कठे कर उन्हें बेच कर अपना और अपनी बेटी का भरण पोषण करती थी । एक गर्मी के मौसम में जब पेड़ काफलो से लदे  थे, तब माँ  काफलो को तोड़कर बाजार में बेचकर कुछ पैसे कमाना चाहती थीं।


एक दिन माँ जंगल से  काफल लाकर बाहर टोकरी में रखकर खेतों में काम करने चली गई। उसने अपनी बेटी को काफलों की देखभाल करने और इसे नहीं खाने के लिए कहा, जब माँ  खेतों से  घर लौटी, तो उसने पाया कि काफलों की मात्रा कम हो गई थी। उसने बेटी से पूछा की "तूने काफल खाए है ना ? " इस पर बेटी कहती है माँ मैंने तो चखे भी नहीं , माँ बेटी की बात पर यकीन नहीं करती , बेटी के जिद करने के बावजूद कि उसने कुछ नहीं खाया, मां ने उस पर झूठ बोलने का आरोप लगाया और गुस्से में उसे पीटना शुरू कर दिया। बदकिस्मती से माँ की पिटाई इतनी तेज थी कि बेटी की मौत हो जाती है ।


शाम के वक्त धूप कम होने पर काफल वापस अपने आकार में आ जाते हैं और टोकरी पुनः भर जाती है । यह देखर माँ को अपनी गलती का एहसास हुआ और वह ग्लानि और पछतावे से भर उठती है । वह अपनी बेटी से  माफी माँगने और बेटी को दुलार करने की  कोशिश करती है , लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसी निराशा और अवसाद में उसके भी प्राण पखेरू उड़ जाते हैं । कहानी के अनुसार दोनों मां-बेटी मरने के बाद चिड़िया बन जातीं है । लोक मान्यता है की  जब भी पहाड़ों में काफल पकते हैं तो एक पक्षी बड़े करुण भाव से गाता है – काफल पाको मैंल नी चाखो (काफल पके हैं, पर मैंने नहीं चखे हैं) और तभी दूसरा पक्षी चीत्कार करता है – पुर पुतई पूर पूर (पूरे हैं बेटी पूरे हैं)। 


यह कहानी गुस्से के खतरों और सुनने और समझने के महत्व के बारे में आम जनमानस को  सतर्क करती  है। यह काफल फल के भावनात्मक महत्व पर भी प्रकाश डालता है, जो मां और बेटी की दुखद कहानी से जुड़ा है।


 इस कहानी के अलावा भी देवभूमि उत्तराखंड  में किंवदंतियों और मिथकों की एक समृद्ध विरासत है, और काफल का पेड़ इस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का एक हिस्सा है। 

Comments

Popular posts from this blog

उत्तराखंड शिक्षा विभाग में प्रधान सहायकों के हुए पारस्परिक स्थानांतरण सूची देखें।

  सूची डाउनलोड करें । सभी स्थानांतरित  साथियों को शुभकामनाएं । शिक्षक भास्कर जोशी  (शिक्षा से सूचना तक ) ऐसी सूचनाएं प्राप्त करने के लिए मेरे  whatsapp  समूह में जुड़े मेरे मैगजीन समूह से जुड़ें   

CRC ,BRC के गैर शैक्षणिक पदों को आउटसोर्सिंग से भरने की सरकार की पहल , मिलेगा 40,000 मानदेय । आदेश पढ़े

  आदेश पत्र डाउनलोड करें शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने और प्रशासनिक दक्षता में सुधार लाने के उद्देश्य से, समग्र शिक्षा के उत्तराखंड राज्य परियोजना कार्यालय ने आउटसोर्सिंग के माध्यम से ब्लॉक रिसोर्स पर्सन (बीआरपी) और क्लस्टर रिसोर्स पर्सन (सीआरपी) के लिए भर्ती प्रक्रिया शुरू की है। समग्र शिक्षा योजना के तहत कुल 955 पद भरे जाने हैं, जिनमें ब्लॉक रिसोर्स पर्सन के लिए 285 और क्लस्टर रिसोर्स पर्सन के लिए 670 पद शामिल हैं। इन पदों पर रु. तक का मानदेय मिलता है। 40,000 प्रति माह, जिसमें जीएसटी, सेवा शुल्क, पीएफ, ईएसआई और प्रशासनिक शुल्क जैसे विभिन्न शुल्क शामिल हैं। इन पदों के लिए पात्रता मानदंड में शामिल हैं: बीआरपी के लिए: प्रासंगिक विषयों में 55% अंकों के साथ स्नातकोत्तर, बैचलर ऑफ एजुकेशन (बी.एड), सीटीईटी या यूटीईटी प्रमाणपत्र धारक, और कंप्यूटर दक्षता। सीआरपी के लिए: किसी भी विषय में 55% अंकों के साथ स्नातकोत्तर, बैचलर ऑफ एजुकेशन (बी.एड), सीटीईटी या यूटीईटी प्रमाणपत्र धारक, और कंप्यूटर दक्षता। भर्ती प्रक्रिया जेईएम पोर्टल के माध्यम से चयनित एक आउटसोर्स एजेंसी के माध्यम से की जाएगी। इच्छुक उम्मी

भारतीय डाक 30,041 ग्रामीण डाक सेवकों की बंपर भर्ती आयोजित करेगा, किसी परीक्षा की आवश्यकता नहीं जल्द आवेदन करें

भारतीय डाक 30,041 ग्रामीण डाक सेवकों की बंपर भर्ती आयोजित करेगा, किसी परीक्षा की आवश्यकता नहीं DOWNLOAD NOTIFICATION https://indiapostgdsonline.gov.in/# भारत की राष्ट्रीय डाक सेवा, इंडिया पोस्ट, ग्रामीण डाक सेवकों (जीडीएस) के पद के लिए एक बंपर भर्ती अभियान चलाने के लिए तैयार है। इस भर्ती अभियान के माध्यम से कुल 30,041 जीडीएस रिक्तियां भरी जाएंगी। भर्ती उम्मीदवारों की शैक्षणिक योग्यता और अनुभव के आधार पर पूरी तरह से योग्यता के आधार पर आयोजित की जाएगी। इस भर्ती अभियान के लिए कोई लिखित परीक्षा नहीं होगी। जीडीएस पद के लिए पात्र होने के लिए, उम्मीदवारों को अनिवार्य विषयों के रूप में गणित और अंग्रेजी के साथ 10वीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी। उन्हें स्थानीय भाषा का भी ज्ञान होना चाहिए. जीडीएस पद के लिए आयु सीमा 18 से 40 वर्ष है। जीडीएस भर्ती अभियान के लिए आवेदन प्रक्रिया अब खुली है और 23 अगस्त, 2023 को बंद हो जाएगी। उम्मीदवार इंडिया पोस्ट की आधिकारिक वेबसाइट indiapostgdsonline.gov.in के माध्यम से ऑनलाइन आवेदन कर सकते हैं। जीडीएस भर्ती अभियान के लिए चयन प्रक्रिया में निम्नलिखित चरण शाम