हिसालू ( रुबस एलिप्टिकस ) देवभूमि उत्तराखंड का औषधीय फल , कई रोगों का रामबाण इलाज ।




कुमाऊँ के प्रथम कवि श्री गुमानी पन्त जी  लिखते हैं कि

हिसालू की जात बड़ी रिसालू , जाँ जाँ जाँछे उधेड़ि खाँछे।
यो बात को क्वे गटो नी माननो, दुद्याल की लात सौणी पड़ंछ।

अर्थात  हिसालू की नस्ल बड़ी नाराजगी भरी है,जहां-जहां जाती  है, बुरी तरह खरोंच देती  है, तो भी कोइ भी इस बात का बुरा नहीं मानता, क्योंकि दूध देने वाली गाय की लातें खानी ही पड़ती हैं।

यहाँ महान कवि जिस हिसालू की बात कर रहे है वह एक कांटेदार परन्तु बहुत ही गुणों से भरपूर एक प्रशिद्ध   पौधा है जिसका सिर्फ फल ही नहीं अपितु पूर्ण पौधा ही औषधीय गुणों से भरपूर है , इस लेख में आज हम इसी पहाड़ी जंगली फल हिसालू की चर्चा करेंगे। हिसालू का वैज्ञानिक नाम रुबस एलिप्टिकस / Rubus ellipticus , है इसे आमतौर पर हिमालयी ब्लैकबेरी के रूप में जाना जाता है, देवभूमि उत्तराखंड में पाए जाने वाले सैंकड़ो फल - फूलों औरऔषधीय पादपो में हिसालू बहुत विशेष स्थान रखता है। यह जंगली और रसदार फल न केवल दिखने में आकर्षक है बल्कि अपने औषधीय गुणों के लिए भी प्रसिद्ध है।


यह पौधा इसकी मजबूत वृद्धि और स्वादिष्ट बेरी के प्रचुर उत्पादन के लिए जाना जाता है। रूबस एलिप्टिकस कांटेदार शाखाओं और दाँतेदार पत्तियों वाला एक पर्णपाती झाड़ी है। यह पौधा उत्तराखंड की ठंडी और समशीतोष्ण जलवायु में पनपता है, विशेष रूप से अधिक ऊँचाई पर। रुबस एलिप्टिकस की बेरी  नारंगी  रंग की  होती है और इनका स्वाद मीठा होता है। रूबस एलिप्टिकस या हिसालू उत्तराखंड के जंगलों की जैव विविधता में योगदान देता है और स्थानीय समुदायों के लिए एक मूल्यवान संसाधन के रूप में जाना जाता है। मेरे पिछले 10 वर्षो में मैंने स्वयं इस पौधे के ग्रामीणों के मध्य विभिन्न प्रकार से  प्रयोग होते देखा है एक शिक्षक के तौर पर इस पारंपरिक ज्ञान को सहेजने का कार्य भी कर रहा हु । 


हिसालू का फल  जेठ (मई-जून) के महीने में शुष्क मौसम के दौरान छोटी, कंटीली झाड़ियों पर उगता है। कुछ स्थान इसे "हिंसर" या "हिंसारू" के रूप में भी संदर्भित करते हैं, जबकि इसे हिमालयी रसभरी के रूप में भी जाना जाता है। 

पूरी तरह से पका फल मीठा और बहुत थोडा सा तीखा स्वाद लिए होता है। यह एक नाजुक फल है जिसे पौधे से तोड़ते समय सवाधानी बरतनी होती है अन्यथा यह आपकी अंगुलियों में ही बिखर जायेगा ,फलों को लंबे समय तक संरक्षित नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह तोड़ने के  1-2 घंटे के भीतर खराब हो जाता है। इसके स्वाद का तो क्या कहना मुंह में रखते ही यह  पिघल जाता है। 

कुमाऊं के लोकगीतों में हिसालू फल का विशेष स्थान है कुमाउनी गीत  इसके रसदार और स्वादिष्ट स्वाद का वर्णन करते हैं।     

अपने उच्च एंटीऑक्सीडेंट सामग्री के कारण, हिसालू फल शरीर के लिए फायदेमंद माना जाता है। इस फल की जड़ को बिच्छूघास  की जड़ और लैगेरस्ट्रोइमिया परविफ्लोरा की छाल के साथ पीसकर बुखार की एक गुणकारी औषधि बनती है। हिसालू फल की पत्तियों के ताजा रस का उपयोग गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल रोगों के इलाज के लिए किया जाता है, जबकि इसके ताजा रस को ब्राह्मी और दूर्वा घास (सिनोडोन डेक्टाइलोन) की पत्तियों के साथ मिलाकर पेप्टिक अल्सर के इलाज में उपयोग किया जाता है। 


फल से प्राप्त रस बुखार, पेट दर्द, खांसी और गले में खराश से राहत दिलाने में बेहद फायदेमंद होता है। इसकी छाल का उपयोग तिब्बती चिकित्सा में इसकी सुगंध और कामोत्तेजक गुणों के लिए भी किया जाता है। हिसालू फल का उपयोग किडनी टॉनिक के रूप में भी किया जाता है और यह कमजोरी और थकान को दूर करने में मदद करता है। इसका उपयोग बार-बार पेशाब आना, अत्यधिक योनि स्राव, वीर्य की कमी और बच्चों में बिस्तर गीला करने जैसी स्थितियों के उपचार में किया जाता है। 



अंत में, हिसालू उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाने वाला एक आकर्षक फल है। हिसालू (Hisalu) फल औषधीय गुणों से भरपूर होता है। इसके फलों में प्रचुर मात्रा में एंटीऑक्सिडेंट पाया जाता है, जो शरीर के लिए उपयोगी होता है। यह एंटीऑक्सिडेंट शरीर को रोगों से बचाने में मदद करता है और उम्र के लंबे समय तक स्वस्थ रहने में मदद कर सकता है। हिसालू की जड़ बुखार के रोगी के लिए एक प्रमुख आयुर्वेदिक दवा के रूप में उपयोग की जाती है। इसके पत्तियों को ब्राह्मी, दूर्वा और कोपलों के साथ मिलाकर पेप्टिक अल्सर (पेट में अल्सर) के उपचार में उपयोग किया जाता है। इनका संयोग जीर्णाश्म, जलन, और खट्टापन जैसे पेप्टिक अल्सर के लक्षणों को कम करने में मदद करता है।



इसके फलों का सेवन बुखार, पेट दर्द, खांसी, और गले में फायदेमंद होता है। इसकी छाल का उपयोग तिब्बती चिकित्सा पद्धति में सुगंधित और कामोत्तेजक प्रभाव केे पेप्टिक अल्सर के लक्षणों को कम करने में मदद करता है।
इसके फलों का सेवन बुखार, पेट दर्द, खांसी, और गले में फायदेमंद होता है। इसकी छाल का उपयोग तिब्बती चिकित्सा पद्धति में सुगंधित और कामोत्तेजक प्रभाव के साथ श्वास-तंत्र के रोगों के उपचार में किया जाता है।


हिसालू फल में विटामिन C, विटामिन ए, विटामिन क, कैल्शियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम, आयरन, और फाइबर आपूर्ति होती है। इसके आयुर्वेदिक गुणों में पाचन तंत्र को सुधारने, आंत्र मलों को संतुलित करने, शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करने, और विषाक्त पदार्थों का निकालने में मदद मिलती है। यह भारतीय परंपरागत चिकित्सा में मसूड़ों के रोगों, गले के रोगों, आंखों की रोशनी को बढ़ाने, पाचन शक्ति को सुधारने, और मधुमेह के उपचार में भी उपयोग होता है।

हालांकि, किसी भी औषधीय उपयोग या नयी चिकित्सा विधि का प्रयोग करने से पहले एक चिकित्सक  या वैद्यकीय विशेषज्ञ से परामर्श करना सुरक्षित और उचित होगा। वे आपको सही दवा और उपचार की सलाह देंगे जो आपके विशेष स्थिति के अनुरूप होगा।


शिक्षक भास्कर जोशी 

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